Wednesday, November 19, 2014

ग़ज़ल


मुट्ठी से यूं हर लम्हा छूटता है 
साख से जैसे कोई पत्ता टूटता है 

हवाओं के हक़ में ही गवाही देगा 
ये शज़र जो ज़रा ज़रा टूटता है 

कुछ हैराँ -परेशां सा एक कबूतर 
गुज़रे मौसमों के निशां ढूंढता है 

लोग किस ज़माने की सुनते हैं 
जमाना आखिर किसे पूछता है ?

मिटटी या कुम्हार, दोष किसे दें 
पानी में गिरते ही घड़ा फूटता है 

अपने सर पे कई इलज़ाम लेकर 
इस दौर में बस आईना टूटता है 

कोई मनाए देकर दोस्ती का वास्ता 
इस उम्मीद में अब कौन रूठता है

वक्त लगता है दिल के बहल जाने में 
रफ्ता रफ्ता उम्मीद का दामन छूटता है 

वंदना 









9 comments:

  1. लोग किस ज़माने की सुनते हैं
    जमाना आखिर किसे पूछता है ..
    वाह ... बहुत ही कमाल का शेर ... हकीकत की बयानी है ...

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  2. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (21.11.2014) को "इंसान का विश्वास " (चर्चा अंक-1804)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।

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  3. Wah didi bahot khub
    मिटटी या कुम्हार, दोष किसे दें
    पानी में गिरते ही घड़ा फूटता है

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  4. बहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...

    आग्रह है-- हमारे ब्लॉग पर भी पधारे
    शब्दों की मुस्कुराहट पर ...दूर दूर तक अपनी दृष्टि दौड़ाती सुनहरी धुप

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  5. वाह ! बहुत खुबसूरत ग़ज़ल !
    आईना !

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  6. Bahut bahut shukriyaa aap sabhi ka .:)

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  7. कोई मनाए देकर रफ़ाक़त का वास्ता
    इस तवक्को में अब कौन रूठता है।

    bahut umda

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तुम्हे जिस सच का दावा है  वो झूठा सच भी आधा है  तुम ये मान क्यूँ नहीं लेती  जो अनगढ़ी सी तहरीरें हैं  कोरे मन पर महज़ लकीर...